मध्यप्रदेश की शिक्षा व्यवस्था इन दिनों एक गंभीर संकट से गुजर रही है। राज्य भर में सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि यह अब बच्चों की जान के लिए खतरा बन गई है। जर्जर भवन, गिरती छतें, टूटता प्लास्टर और सुविधाओं का घोर अभाव — यह सब एक ऐसी तस्वीर पेश करता है जो किसी भी विकसित होते राज्य के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए।
हर सप्ताह एक हादसा, हर बार वही सवाल
राज्य के 92,439 सरकारी स्कूलों में से करीब 5,600 स्कूल भवन खुद राज्य सरकार की नजर में “जर्जर” घोषित किए जा चुके हैं। वहीं 81,568 कक्षाओं की स्थिति भी दयनीय मानी गई है। यह आंकड़े मध्यप्रदेश विधानसभा में खुद स्कूल शिक्षा मंत्री उदय प्रताप सिंह ने स्वीकारे हैं। कई भवन ऐसे हैं जो 1986 से 1996 के बीच बनाए गए थे, और अब उनकी स्थिति “अति जर्जर” की श्रेणी में आ चुकी है — यानी किसी भी वक्त ढह सकते हैं।
अभिभावकों में भय का माहौल
राजस्थान और अन्य राज्यों में हुई स्कूल भवन दुर्घटनाओं के बाद मध्यप्रदेश के अभिभावकों के मन में भी भय व्याप्त है। बच्चों को स्कूल भेजते वक्त वे डरे रहते हैं कि कहीं उनके बच्चों के साथ भी कोई अनहोनी न हो जाए। एक ओर शिक्षा का अधिकार कानून बच्चों को स्कूल भेजने की गारंटी देता है, वहीं दूसरी ओर स्कूल भवनों की हालत इस गारंटी का मजाक उड़ाती है।
बजट है, लेकिन पर्याप्त नहीं
प्रदेश सरकार ने वित्त वर्ष 2025-26 में स्कूल शिक्षा के लिए ₹36,582 करोड़ का प्रावधान किया है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इस बजट का बड़ा हिस्सा वेतन, स्टेशनरी, मध्यान्ह भोजन, योजनाओं और प्रशासनिक खर्चों में चला जाता है। भवनों की मरम्मत या पुनर्निर्माण के लिए जो रकम बचती है, वह ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती है।

बिना छत के चल रही पढ़ाई
कुछ जिलों में हालात इतने बुरे हैं कि बच्चों को खुले में बैठकर पढ़ाई करनी पड़ रही है। न शौचालय की सुविधा है, न पीने के पानी की समुचित व्यवस्था। बालिकाओं के लिए अलग टॉयलेट तक उपलब्ध नहीं हैं, जिससे ड्रॉपआउट रेट में भी इज़ाफा देखने को मिल रहा है।
सरकारी लापरवाही या योजनागत विफलता?
सरकार की ओर से सर्वे तो समय-समय पर कराए गए हैं, लेकिन इन पर अमल के ठोस प्रयास नदारद हैं। रिपोर्टें फाइलों में बंद हो जाती हैं और असली काम जमीन पर दिखाई नहीं देता। यही कारण है कि हर साल मानसून से पहले कुछ स्कूलों को बंद करना पड़ता है ताकि हादसे न हों, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं है।
भविष्य की पीढ़ी संकट में
यह स्थिति सिर्फ वर्तमान की नहीं, बल्कि भविष्य की भी चिंता बढ़ा रही है। अगर सरकार अब भी सजग नहीं हुई, तो यह समस्या शिक्षा की गुणवत्ता के साथ-साथ बच्चों की सुरक्षा को भी गंभीर रूप से प्रभावित करेगी।
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मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूल आज दोहरी मार झेल रहे हैं — एक तरफ बुनियादी सुविधाओं की कमी, दूसरी ओर प्रशासनिक उपेक्षा। बच्चों की जान दांव पर लगाकर शिक्षा नहीं दी जा सकती। समय आ गया है जब सरकार को सिर्फ योजना बनाकर छोड़ देने के बजाय धरातल पर बदलाव लाना होगा। वरना “पढ़ेगा इंडिया” सिर्फ नारा बनकर रह जाएगा।