भोपाल।
मध्यप्रदेश में अनुदान प्राप्त स्कूलों के शिक्षकों को सातवें वेतनमान का लाभ न दिए जाने पर हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट आदेश के बावजूद शिक्षकों को वेतनवृद्धि का लाभ न मिलने पर नाराजगी जताई है और शिक्षा विभाग से जवाब तलब किया है। यह मामला वर्षों पुराना है, लेकिन अब तक सरकार और विभाग की ओर से आदेश का पालन नहीं हुआ है, जिससे शिक्षकों में भी गहरी नाराजगी है।
मामला क्या है?
मामला मध्यप्रदेश के अनुदान प्राप्त निजी स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों का है। इन शिक्षकों को सातवें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने के लिए वर्ष 2019 में ही हाईकोर्ट द्वारा आदेश जारी किया गया था। यह आदेश माध्यमिक शिक्षक संघ द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के बाद आया था। कोर्ट ने अपने आदेश में सरकार को निर्देश दिया था कि सातवें वेतनमान की राशि किश्तों में शिक्षकों को प्रदान की जाए।
हालांकि, आदेश जारी हुए करीब 6 साल बीत चुके हैं, लेकिन आज तक इस पर कोई ठोस अमल नहीं हुआ। सरकार की इस अनदेखी से परेशान होकर शिक्षकों ने हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दायर की।
कोर्ट ने दिखाए सख्त तेवर
इस अवमानना याचिका पर हाल ही में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव सचदेवा और जस्टिस विनय सराफ की बेंच में सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस बात पर कड़ी नाराजगी जताई कि स्पष्ट आदेश होने के बावजूद शिक्षा विभाग ने कार्रवाई क्यों नहीं की।
कोर्ट ने शिक्षा विभाग को फटकार लगाते हुए पूछा कि अब तक क्या प्रक्रिया अपनाई गई है, और किस स्तर पर आदेश के पालन में देरी हुई। कोर्ट ने विभाग को निर्देश दिया है कि वेतनमान से संबंधित पूरी प्रक्रिया का विस्तृत ब्योरा अगली सुनवाई में प्रस्तुत किया जाए।
क्या कहा शिक्षक संघ ने?
माध्यमिक शिक्षक संघ के पदाधिकारियों का कहना है कि कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार की अनदेखी न केवल कानून की अवमानना है, बल्कि शिक्षकों के साथ अन्याय भी है। उन्होंने बताया कि शिक्षकों ने लंबे समय से वेतनमान की मांग की है, लेकिन सरकार बार-बार इस मामले को टालती रही है।
संघ का यह भी कहना है कि शिक्षकों को आर्थिक नुकसान तो हुआ ही है, साथ ही यह मामला उनके आत्मसम्मान और अधिकारों से भी जुड़ा है। कोर्ट का रुख देखकर शिक्षकों में एक उम्मीद जगी है कि अब उन्हें जल्द न्याय मिलेगा।

सरकार की चुप्पी पर उठे सवाल
हाईकोर्ट के स्पष्ट निर्देश के बावजूद, राज्य सरकार और शिक्षा विभाग की चुप्पी ने इस पूरे मामले को और भी गंभीर बना दिया है। यह सवाल उठता है कि जब अदालत द्वारा आदेश पारित किया गया था, तो फिर अब तक उस पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? क्या यह एक प्रशासनिक लापरवाही है या जानबूझकर की गई अनदेखी?
क्या होगा अगला कदम?
अब इस मामले में अगली सुनवाई के दौरान शिक्षा विभाग को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी। यदि अदालत को जवाब संतोषजनक नहीं लगता है, तो सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई हो सकती है। यह मामला अब न केवल शिक्षकों से जुड़ा है, बल्कि पूरे प्रदेश में कानूनी आदेशों के पालन की गंभीरता पर भी सवाल खड़े कर रहा है।
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इस घटनाक्रम ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों को उनका उचित हक दिलवाने के लिए न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। देखना यह होगा कि अब सरकार इस मामले को कितनी गंभीरता से लेती है और शिक्षकों को उनका हक दिलवाने के लिए कब तक ठोस कदम उठाए जाते हैं।