मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की एकल पीठ ने एक बेहद अहम फैसले में राज्य शासन और राजस्व विभाग के अधिकारियों को फटकार लगाई है, जहां एक अभ्यर्थी को नायब तहसीलदार के पद पर चयन के बाद भी सात साल तक नियुक्ति नहीं दी गई। कोर्ट ने इसे “मनमाना, दुर्भावनापूर्ण और निरंकुश” रवैया करार देते हुए याचिकाकर्ता को 30 दिन के भीतर पोस्टिंग देने और 7 लाख रुपये हर्जाने की सिफारिश की है। खास बात ये है कि ये हर्जाना उस अधिकारी से वसूला जाएगा, जिसने लापरवाही की।
मामला क्या है?
कांच मिल रोड, ग्वालियर निवासी अतिराज सेंगर ने मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग (MPPSC) द्वारा वर्ष 2013 में आयोजित तहसीलदार भर्ती परीक्षा में भाग लिया था। वर्ष 2016 में इसका परिणाम घोषित हुआ, जिसमें अतिराज को सामान्य श्रेणी (श्रवण बाधित) की प्रतीक्षा सूची में 16वें नंबर पर रखा गया। इस श्रेणी में चयनित केवल एक उम्मीदवार, अमित कुमार तिवारी, ने पदभार ग्रहण नहीं किया। इसके बाद MPPSC ने 2018 में अतिराज सेंगर के नाम की अनुशंसा की।
लेकिन यहाँ से शुरू हुई नौकरशाही की लापरवाही। राजस्व विभाग को 2018 में अनुशंसा मिलने के बावजूद न तो कोई जवाब दिया गया, न ही नियुक्ति पत्र भेजा गया। आखिरकार अतिराज को न्याय के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।


राज्य शासन का बचाव और कोर्ट की टिप्पणी
राज्य सरकार की ओर से दलील दी गई कि चयन सूची की वैधता एक वर्ष तक ही थी, और MPPSC ने परिणाम घोषित होने के एक साल बाद अनुशंसा भेजी, जब सूची “अस्तित्व में नहीं” थी। अतः नियुक्ति संभव नहीं।
लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को सिरे से खारिज करते हुए कहा:
“यह राज्य शासन के अधिकारियों की मनमानी और दुर्भावना का स्पष्ट उदाहरण है। जब MPPSC ने विधिवत अनुशंसा की थी, तो उस पर कार्रवाई करना विभाग की जिम्मेदारी थी।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि “याचिकाकर्ता के जीवन के 7 वर्ष इस प्रक्रिया ने बर्बाद कर दिए। वह अपनी सफलता का आनंद नहीं ले सका।” कोर्ट ने राज्य शासन को आदेश दिया कि 30 दिन में याचिकाकर्ता की नियुक्ति दी जाए, और ₹7 लाख की क्षतिपूर्ति उस अधिकारी से वसूल की जाए, जिसने नियुक्ति में अड़ंगा डाला।
क्यों है यह फैसला अहम?
यह फैसला मध्य प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र में सिस्टमेटिक लापरवाही और जवाबदेही के अभाव को उजागर करता है। जब एक अभ्यर्थी चयन के बावजूद 7 साल तक नियुक्ति की राह देखता है, तो सवाल उठते हैं – क्या केवल सत्ता और पद ही सिस्टम का हिस्सा हैं? क्या आम युवाओं की उम्मीदों की कोई कीमत नहीं?
इस फैसले ने न सिर्फ याचिकाकर्ता को न्याय दिलाया है, बल्कि पूरे सिस्टम को चेतावनी भी दी है कि अब लापरवाही की कीमत देनी पड़ेगी।
ग्वालियर हाईकोर्ट का यह निर्णय स्पष्ट करता है कि न्याय में देरी भी अन्याय है। अतिराज सेंगर को आखिरकार न्याय मिला, लेकिन 7 साल की मानसिक और व्यावसायिक यातना के बाद। अब देखना यह होगा कि राज्य शासन इस आदेश का ईमानदारी से पालन करता है या फिर अपील की आड़ में फिर से देरी का खेल खेलता है।
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यह मामला उन हजारों युवाओं के लिए एक उम्मीद बन सकता है, जो व्यवस्था की बेरुखी से जूझ रहे हैं। अदालत का यह संदेश साफ है – अब लापरवाही बर्दाश्त नहीं होगी।