कोविड-19 महामारी के दौरान ड्यूटी करते हुए जान गंवाने वाले कर्मचारियों को लेकर राज्य सरकार द्वारा घोषित कल्याण योजनाएं, ज़मीनी स्तर पर कितनी गंभीरता से लागू हो रही हैं, इसका एक चिंताजनक उदाहरण हाल ही में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की सुनवाई में सामने आया। देवास के एएसआई डेनियल भाभर की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी मीना भाभर को 50 लाख रुपये की सहायता राशि नहीं दी गई, जिस पर हाई कोर्ट ने राज्य प्रशासन की संवेदनहीनता पर तीखी टिप्पणी की।
‘बड़ा दिल रखें’ – हाईकोर्ट की अफसरों को सख्त फटकार
न्यायमूर्ति प्रणय वर्मा की एकलपीठ ने सुनवाई करते हुए कहा कि राज्य के अधिकारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे ‘बड़ा दिल’ रखें। कोर्ट ने कहा कि जिन कर्मचारियों ने महामारी के दौर में अपने कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करते हुए जान गंवाई, उनके परिजनों को लाभ पहुँचाना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है। यह न केवल कानूनन उचित है, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी जरूरी है।
मदद की योजना, मगर लाभ नहीं
राज्य सरकार ने कोविड-19 महामारी के समय ‘मुख्यमंत्री कोविड-19 योद्धा कल्याण योजना’ की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत कोविड ड्यूटी के दौरान संक्रमित होकर जान गंवाने वाले कर्मचारियों के परिवारों को 50 लाख रुपये की सहायता दी जानी थी। एएसआई डेनियल भाभर की 1 मई 2021 को संक्रमण से मृत्यु हो गई थी। उनकी पत्नी ने इसी योजना के तहत आवेदन किया, लेकिन देवास के कलेक्टर ने 2023 में यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि भाभर को “कोविड ड्यूटी पर तैनात नहीं किया गया था”।

मीना भाभर ने इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी, जहां दो साल बाद आए फैसले में न्यायमूर्ति वर्मा ने कलेक्टर के निर्णय को न सिर्फ खारिज किया, बल्कि राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह 45 दिनों के भीतर पूरी सहायता राशि प्रदान करे। अदालत ने यह भी कहा कि अफसर छोटी-छोटी तकनीकी बातों का सहारा लेकर भुगतान से बचने की कोशिश कर रहे हैं, जो गलत है।
कर्तव्यपरायणता को नज़रंदाज़ करना दुर्भाग्यपूर्ण
कोर्ट ने टिप्पणी की कि जब पूरा देश बंद था, लोग अपने घरों से निकलने में डर रहे थे, तब एएसआई डेनियल भाभर जैसे कर्मचारी अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। वे जनता की सेवा करते हुए जोखिम उठाकर काम कर रहे थे। ऐसे में सरकार का यह रवैया दुखद है कि वह योजना की लाभ राशि देने से कतरा रही है।
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यह मामला न सिर्फ एक विधवा के हक की लड़ाई का उदाहरण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कल्याणकारी योजनाएं सिर्फ कागज़ों में नहीं, ज़मीन पर भी ईमानदारी से लागू होनी चाहिए। हाई कोर्ट की टिप्पणी राज्य प्रशासन के लिए एक चेतावनी है—सरकारी संवेदनशीलता महज नीतियों से नहीं, व्यवहार से साबित होती है।