भारत में दिवाली, जो प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने के जश्न के रूप में मनाई जाती है, खुशियों का त्योहार है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में एक ऐसा समुदाय भी है जो इस दिन को शोक मनाता है? यह है थारू जनजाति, जो दिवाली के बजाय “दिवारी” मनाते हैं और इस दिन अपने मृतकों को याद करते हैं।
थारू जनजाति: एक संक्षिप्त परिचय
थारू जनजाति भारत के उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और राजस्थान में पाई जाती है। इसके अलावा, ये नेपाल में भी निवास करते हैं। थारू जनजाति का नाम थार रेगिस्तान के नाम पर रखा गया है, और इन्हें राजस्थान के राजपूतों के वंशज माना जाता है। भारत में लगभग 1,70,000 और नेपाल में लगभग 15 लाख थारू लोग हैं।

दिवाली नहीं, दिवारी: शोक पर्व का दिन
जब पूरे देश में लोग दीप जलाकर खुशियां मनाते हैं, तब थारू जनजाति के लोग दिवाली को शोक पर्व के रूप में मनाते हैं। इस दिन को वे “दिवारी” कहते हैं और अपने पूर्वजों की याद में विशेष आयोजन करते हैं।
परंपरा का महत्त्व
थारू जनजाति के लोग इस दिन अपने स्वर्गवासी परिवारजनों के लिए एक पुतला तैयार करते हैं। यह पुतला उनके याद में जलाया जाता है, और उसके बाद परिवार के सभी सदस्य एकत्रित होकर भोज का आयोजन करते हैं। यह आयोजन न केवल अपने प्रियजनों को याद करने का माध्यम है, बल्कि परिवार की एकता को भी दर्शाता है।

महिलाओं की प्रमुखता
थारू जनजाति की अनोखी विशेषता यह है कि इसके राना, कठौलिया और डगौरा धड़ों में महिलाएं परिवार की मुखिया होती हैं। यह प्रथा दर्शाती है कि इस समुदाय में महिलाओं को सम्मान और अधिकार दिया जाता है।
संस्कृति और मान्यताएँ
थारू जनजाति की संस्कृति में कई अनोखी मान्यताएँ शामिल हैं। यह समुदाय न केवल अपने पूर्वजों की याद में शोक मनाता है, बल्कि अपनी संस्कृति को भी संजोए रखता है। इनकी परंपराएं, त्योहारों और रीति-रिवाजों का गहरा संबंध उनके जीवन से जुड़ी मान्यताओं से है।
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अंत में
इस प्रकार, थारू जनजाति का “दिवारी” मनाने का तरीका हमें यह सिखाता है कि हर समुदाय के अपने अनूठे रीति-रिवाज होते हैं। जहाँ एक ओर अधिकांश लोग दिवाली को खुशियों के त्योहार के रूप में मनाते हैं, वहीं थारू लोग इसे एक श्रद्धांजलि के रूप में देखते हैं। यह विविधता भारत की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाती है और हमें यह याद दिलाती है कि हर त्योहार का अपना महत्व और अर्थ होता है।