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रक्षा सौदों में बड़ा बदलाव या नई चाल? फील्ड ट्रायल की जगह सिमुलेशन से खरीद प्रक्रिया में तेजी का दावा

क्या भारत की रक्षा तैयारी अब तकनीक के सहारे नये रास्ते पर चल पड़ी है, या फिर पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा है? रक्षा मंत्रालय की एक अंदरूनी रणनीति अब चर्चा में है, जिसने कई पुराने सिस्टम को किनारे कर दिया है। सवाल यही है कि क्या यह बदलाव देश की सुरक्षा के लिए फायदेमंद होगा या फिर जल्दबाज़ी में लिया गया एक बड़ा जोखिम?

मंत्रालय ने हाल ही में फ़ैसला लिया है कि अब रक्षा सौदों और खरीद प्रक्रिया में लगने वाला लंबा समय घटाने के लिए परंपरागत फील्ड ट्रायल की जगह डिजिटल सिमुलेशन और तकनीक आधारित मूल्यांकन प्रणाली का उपयोग किया जाएगा। यह बदलाव उस वक्त सामने आया है, जब कुछ ही समय पहले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे गुप्त सैन्य अभियानों को अंजाम दिया गया था।

वर्षों की प्रक्रिया अब महीनों में?

फिलहाल, रक्षा उपकरणों को खरीदने से पहले फील्ड ट्रायल में सालों लगते थे। खासकर तब जब उपकरण विदेशी हों या जटिल तकनीकों से जुड़े हों। पर अब, सरकार का दावा है कि डिजिटल सिमुलेशन से यह प्रक्रिया कुछ ही महीनों में पूरी हो सकेगी। मगर, सवाल उठता है – क्या सिमुलेशन सिस्टम युद्ध जैसी जमीनी परिस्थितियों की सटीक नकल कर सकते हैं?

सूत्रों का कहना है कि यह योजना लंबे समय से बन रही थी, लेकिन इसे अचानक लागू किया गया है, जिससे कुछ रक्षा विशेषज्ञ भी चौंके हैं।

निजी कंपनियों की एंट्री और सरकारी ‘तेज़ी’

जानकारी के अनुसार सरकार अब एंटी-ड्रोन सिस्टम, स्मार्ट गोला-बारूद और बख्तरबंद वाहनों के निर्माण के लिए निजी क्षेत्र को खुली छूट देने जा रही है। यह कदम उस वक्त उठाया जा रहा है जब प्राइवेट सेक्टर को लेकर ट्रांसपेरेंसी और क्वालिटी पर सवाल उठते रहे हैं।

कई अधिकारी इसे एक जरूरी सुधार बता रहे हैं। वहीं कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तकनीकी भरोसे के नाम पर परंपरागत सुरक्षा उपायों को दरकिनार करना बेहद जोखिम भरा है। खासकर जब बात सीमा सुरक्षा, आतंकवाद और साइबर जंग की हो।

इमरजेंसी खरीद की बढ़ती शक्ति

रक्षा मंत्रालय के पास अब ‘इमरजेंसी प्रोक्योरमेंट पावर’ है, जिसके तहत सेना 40,000 करोड़ रुपये तक की खरीद सीधे और तात्कालिक रूप से कर सकती है। यह अधिकार पहले सीमित परिस्थितियों में ही लागू होता था, लेकिन अब इसे ‘नवीन सामान्य’ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।

एक अधिकारी ने बताया कि अब सेना की अतिरिक्त मांगों को सिर्फ बजट सीमाओं से नहीं रोका जाएगा। यह बात रणनीतिक जरूरतों के तहत तय होगी। लेकिन इसी में सबसे बड़ा सवाल यह है – क्या ये मांगें नियंत्रण में रहेंगी या फिर निजी विक्रेताओं के प्रभाव में आएंगी?

आंकड़ों में छिपी कहानी

सीएजी (नियंत्रक महालेखा परीक्षक) के आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2025-26 की शुरुआत में ही रक्षा मंत्रालय ने 6.81 लाख करोड़ रुपये के बजट में से करीब 64,221 करोड़ खर्च कर दिए हैं। इतनी तेज़ी किस वजह से है, और क्या इसके पीछे राजनीतिक या कॉर्पोरेट दबाव है? इन सवालों पर मंत्रालय चुप है।

सुधार या जल्दबाज़ी?

रक्षा सौदों में पारदर्शिता, समयबद्धता और तकनीकी समावेशन एक स्वागतयोग्य कदम हो सकता है। लेकिन जब पूरी प्रक्रिया अचानक डिजिटल मोड में डाल दी जाए, तो यह जरूरी हो जाता है कि हर बिंदु पर पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित हो।

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रक्षा क्षेत्र में एक चूक भी महंगी साबित हो सकती है – इसलिए यह देखना ज़रूरी होगा कि क्या ये बदलाव वास्तविक सुधार हैं या रणनीतिक जोखिम?

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