मुंबई की भागती-दौड़ती ज़िंदगी में जैसे मौत ने धावा बोल दिया हो। वेस्टर्न रेलवे लाइन की 7 लोकल ट्रेनों में 11 मिनट के भीतर एक के बाद एक जोरदार धमाके हुए। 189 निर्दोष लोगों की जान चली गई। सैकड़ों घायल हो गए। स्टेशन प्लेटफॉर्म खून से लाल हो गए थे। यह आज़ाद भारत के सबसे दर्दनाक आतंकी हमलों में से एक था।
लेकिन… 21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया जिसने सबको चौंका दिया। अदालत ने 11 में से 11 आरोपियों को बरी कर दिया। न कोई ठोस सबूत, न स्पष्ट विस्फोटक विश्लेषण, और न विश्वसनीय गवाह। सवाल उठता है – क्या 19 साल की लंबी जाँच और मुकदमेबाज़ी के बाद भी असली गुनहगार आज़ाद घूम रहा है?
क्या हुआ था उस शाम?
शाम 6:24 बजे माटुंगा रोड पर पहला धमाका हुआ। फिर बांद्रा, खार रोड, जोगेश्वरी, बोरीवली, भायंदर और मीरा रोड। हर बोगी में प्रेशर कुकर में रखे विस्फोटक फटे। इनमें से कुछ को टाइमर से और कुछ को मोबाइल डिवाइस से एक्टिवेट किया गया था। हर धमाके के बाद अफरा-तफरी, चीख-पुकार और बिखरे शरीर — जैसे मुंबई रुक गई हो।
19 साल की लंबी लड़ाई और फिर एक झटका
मामला एंटी टेररिज्म स्क्वॉड (ATS) ने संभाला। शुरुआती जांच में लश्कर-ए-तैयबा और सिमी का नाम आया। 13 लोग आरोपी बनाए गए। 2015 में विशेष MCOCA अदालत ने 7 को फांसी और 5 को उम्रकैद की सजा सुनाई।
पर आरोपियों ने फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। 21 जुलाई 2025 को हाईकोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा —
- सबूत अधूरे और अस्पष्ट हैं
- गवाहों की गवाही में विरोधाभास है
- कबूलनामे ज़बरदस्ती लिए गए प्रतीत होते हैं
कोर्ट का कहना था, “अगर संदेह है, तो उसका लाभ आरोपी को मिलेगा। भारतीय न्याय प्रणाली में यह आधारभूत सिद्धांत है।”

लेकिन क्या यही इंसाफ है?
पीड़ित परिवारों का सवाल है — अगर ये 11 आरोपी दोषी नहीं थे, तो असली गुनहगार कौन है? क्या हम उस इंसान को आज़ाद घूमने दे रहे हैं जिसने 189 परिवारों को उजाड़ दिया?
नीलिमा पाटिल, जिनके पति की मौत खार स्टेशन धमाके में हुई थी, फूट-फूटकर कहती हैं, “19 साल बाद भी मैं हर लोकल ट्रेन में डरती हूं। आज कोर्ट ने कहा कि सब निर्दोष थे, तो क्या मैंने झूठा सपना देखा था कि मुझे इंसाफ मिलेगा?”
क्या जांच एजेंसियों ने गलती की?
सवाल अब ATS और मुंबई पुलिस पर भी है। क्या उन्हें राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ा? या फिर सबूतों को सही तरह से संरक्षित नहीं किया गया?
विशेषज्ञ मानते हैं कि जल्दबाज़ी में की गई गिरफ़्तारी, कमज़ोर फॉरेंसिक और प्रशिक्षण की कमी जैसी खामियों ने देश के सबसे बड़े केस को खोखला कर दिया।
आगे क्या?
अब इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन पीड़ितों की उम्मीदें पहले ही टूट चुकी हैं। क्या 189 मौतें यूं ही बेवजह थीं? क्या ये केस सिर्फ फाइलों में रह जाएगा?
यह फैसला कानूनी दृष्टिकोण से भले ही न्याय हो, लेकिन सामाजिक और नैतिक रूप से यह एक अधूरी कहानी है। हो सकता है कि आरोपी निर्दोष हों, लेकिन असली दोषी आज भी हमारी ट्रेनों में सफर कर रहा हो।
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यह सिर्फ एक कोर्ट केस नहीं था, यह भारत की न्याय प्रणाली और जांच व्यवस्था की परीक्षा थी। और अफ़सोस, इस बार परीक्षा में सवाल ज़्यादा थे, जवाब कम।