Homeशिक्षा विशेषराणा सांगा: इतिहास, राजनीति और समकालीन संदर्भों में एक प्रेरक व्यक्तित्व

राणा सांगा: इतिहास, राजनीति और समकालीन संदर्भों में एक प्रेरक व्यक्तित्व

इतिहास केवल घटनाओं और तिथियों का संकलन नहीं होता, बल्कि यह उन महान व्यक्तित्वों का जीवंत दस्तावेज होता है, जिन्होंने अपने साहस, पराक्रम और दूरदृष्टि से समय की धारा को मोड़ा। भारतीय इतिहास में अनेक ऐसे नायक हुए हैं जिनकी गाथाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं। राजस्थान की वीरभूमि ने ऐसे अनेक शूरवीरों को जन्म दिया है, और उन्हीं में एक अत्यंत विशिष्ट स्थान रखते हैं राणा सांगा — मेवाड़ के यशस्वी शासक और राजपूत एकता के अग्रदूत।

राणा सांगा का शासनकाल (1508-1528) केवल युद्धों की श्रृंखला नहीं था, बल्कि यह एक ऐसे नायक की गाथा है जिसने अपने साहस और रणनीतिक कुशलता से दिल्ली, गुजरात और मालवा जैसे शक्तिशाली सुल्तानों को चुनौती दी। राणा सांगा को बाबर के समकालीन सबसे शक्तिशाली हिन्दू शासक के रूप में देखा जाता है। बाबरनामा में बाबर स्वयं लिखता है कि राणा सांगा की सेना में 80,000 घुड़सवार, 500 युद्ध हाथी, और उनके अधीनस्थ अनेक राजा व सरदार थे। यह उनकी सैन्य और राजनीतिक शक्ति का परिचायक है।

हाल ही में एक राजनीतिक विवाद ने राणा सांगा को फिर से चर्चा में ला दिया है। समाजवादी पार्टी के एक सांसद ने राणा सांगा को बाबर के मुकाबले “पराजित योद्धा” कहकर संबोधित किया, जिससे इतिहास और राजनीति की परस्पर जटिलता फिर से उजागर हुई। इस बयान पर भाजपा समेत कई राष्ट्रवादी संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया दी और इसे भारतीय परंपराओं व गौरवशाली अतीत का अपमान बताया। वहीं, कुछ विपक्षी नेताओं ने इसे इतिहास को नए दृष्टिकोण से पढ़ने की आवश्यकता के रूप में देखा।

यह विवाद इस ओर संकेत करता है कि इतिहास केवल अतीत का विषय नहीं, बल्कि वर्तमान राजनीति का भी उपकरण बन चुका है। ऐतिहासिक पात्रों की व्याख्या कभी धार्मिक, कभी सांस्कृतिक, तो कभी वैचारिक नजरिए से होती रही है। इतिहासकार आर.सी. मजूमदार और हरीश चंद्र वर्मा जैसे विद्वानों का मानना है कि बाबर द्वारा यह दावा कि राणा सांगा ने उसे भारत आने का निमंत्रण दिया था, एक रणनीतिक प्रचार था, जिससे उसकी विजय को वैध ठहराया जा सके।

राणा सांगा की सबसे प्रमुख भिड़ंत बाबर से 1527 के खानवा युद्ध में हुई। यह युद्ध भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक भविष्य के लिए निर्णायक था। बाबर की तोपों और सिलहादी जैसे राजपूत सरदार की गद्दारी के कारण राणा सांगा की पराजय हुई। फिर भी, उनकी वीरता को अंग्रेज इतिहासकार जेम्स टॉड समेत कई विद्वानों ने सराहा है। टॉड लिखते हैं कि राणा सांगा का शरीर अस्सी से अधिक घावों से आच्छादित था, पर वे रणभूमि से पीछे नहीं हटे।

इतिहासकार यह भी बताते हैं कि खानवा की हार के बावजूद राणा सांगा ने फिर से बाबर से युद्ध की योजना बनाई, किंतु कुछ विश्वासघाती सरदारों ने उन्हें विष देकर मार दिया। उनकी मृत्यु के साथ ही राजपूतों की संगठित शक्ति कमजोर पड़ गई और भारत में मुगल शासन की नींव मजबूत हो गई।

राणा सांगा केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि वे एक रणनीतिक दूरदर्शी शासक भी थे, जिन्होंने प्रथम बार सभी राजपूतों को एक मंच पर लाकर संगठित किया। उनका संघर्ष केवल सैन्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की लड़ाई थी। वे भारतीय इतिहास में हिंदू शक्ति के अंतिम सशक्त प्रहरी के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

इस प्रसंग से एक और महत्वपूर्ण बात स्पष्ट होती है — इतिहास को तटस्थ दृष्टिकोण से पढ़ने और पढ़ाने की आवश्यकता। जब इतिहास को किसी विशेष विचारधारा के चश्मे से देखा जाता है, तो न केवल तथ्य विकृत होते हैं, बल्कि समाज में विभाजन भी बढ़ता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका उपयोग समाज में विद्वेष फैलाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, परंतु यदि कोई वक्तव्य सामाजिक सौहार्द को प्रभावित करता है, तो IPC की धारा 153(A) और 295(A) के अंतर्गत कार्रवाई की जा सकती है।

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राणा सांगा जैसे ऐतिहासिक चरित्र केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। इतिहास का उद्देश्य केवल तथ्य बताना नहीं, बल्कि नागरिकों को विवेकशील और राष्ट्र के प्रति जागरूक बनाना होना चाहिए। इसलिए, यह अनिवार्य है कि हम इतिहास को अकादमिक और निष्पक्ष दृष्टि से देखें, जिससे राष्ट्र की चेतना और एकता को बल मिले।

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