सीधी (मध्यप्रदेश)
शासन की ओर से संचालित आदिवासी छात्रावासों और आश्रमों का मकसद वंचित तबके के बच्चों को बेहतर शिक्षा और सुविधाएं देना है, लेकिन सीधी जिले में इनका हाल बेहाल है। आदिम जाति कल्याण विभाग के अधीन चल रहे इन संस्थानों में न तो नियमित भोजन की व्यवस्था है और न ही पर्याप्त कपड़े-बिस्तर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। ऊपर से निरीक्षण का कोई पुख्ता तंत्र नहीं होने के कारण अधीक्षक और अधीक्षिकाएं पूरी तरह से स्वेच्छाचारी हो गए हैं।
बजट मिलता है लेकिन सुविधाएं नहीं
जानकारी के अनुसार, शासन द्वारा हर साल छात्रावासों के संचालन, भोजन, कपड़े, नास्ता और बिस्तर जैसी जरूरी चीजों के लिए पर्याप्त बजट जारी किया जाता है। लेकिन यह बजट बच्चों तक नहीं पहुंचता। ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रावासों में बच्चों को सुबह का नाश्ता नहीं दिया जाता। अधिकांश जगहों पर दोपहर और रात का खाना भी बेहद खराब गुणवत्ता का होता है — दाल के नाम पर पीला पानी, बासी चावल और स्वादहीन सब्जी। बच्चों ने शिकायत की है कि कई बार भूखा रहना पड़ता है।
अधिकारियों की गैरहाजिरी, निरीक्षण नाम मात्र का
जिलों में अधीक्षक अपनी मनमर्जी से कार्य कर रहे हैं। ग्रामीण छात्रावासों में अधीक्षक रात को वहां रुकते तक नहीं, जबकि उनकी जिम्मेदारी 24 घंटे की है। कई छात्रावासों में तो बच्चों की देखरेख के लिए कोई स्थायी व्यवस्था तक नहीं रहती। शहरी क्षेत्र की स्थिति थोड़ी बेहतर हो सकती है, लेकिन गांवों में हालात बेहद चिंताजनक हैं।

सूत्रों के अनुसार, अधीक्षक फर्जी बिल और बाउचर लगाकर बजट का बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं। बच्चों को न तो नए कपड़े मिलते हैं, न ही साफ बिस्तर। पुराने, फटे-चिथड़े बिस्तरों का उपयोग वर्षों से किया जा रहा है। ठंड के दिनों में बच्चों को गर्म कपड़े और रजाई-कंबल भी नहीं मिलते, जिसके लिए उनके अभिभावकों को घर से व्यवस्था करनी पड़ती है।
बच्चों की आवाज़ दबा दी जाती है
ग्रामीण और गरीब तबके के बच्चों को डराया जाता है कि शिकायत करने पर उन्हें छात्रावास से निकाल दिया जाएगा। उनके परिजन भी इस भय के कारण चुप रहते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि सरकारी व्यवस्था से ही उनके बच्चों को शिक्षा मिल रही है। ऐसे में छात्रावास की अव्यवस्थाएं बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर डाल रही हैं।
शासन-प्रशासन मौन, सुधार की नहीं कोई पहल
शिक्षा विभाग और आदिम जाति कल्याण विभाग के वरिष्ठ अधिकारी इन समस्याओं को लेकर पूरी तरह से उदासीन नजर आते हैं। अब तक किसी बड़े अफसर ने इन आश्रमों और छात्रावासों का औचक निरीक्षण नहीं किया। बच्चों को दिए जाने वाले साबुन, तेल जैसी मूलभूत सुविधाएं तक अधीक्षकों की मनमर्जी पर निर्भर हैं।
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सीधी जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी छात्रावासों और आश्रमों की दुर्दशा यह दर्शाती है कि सरकारी योजनाएं कागज़ों पर भले ही सशक्त दिखती हों, ज़मीनी स्तर पर उनका हाल बंटाधार है। अगर समय रहते व्यवस्था में पारदर्शिता और कड़ाई नहीं लाई गई, तो यह कुप्रथा न केवल बच्चों के भविष्य को निगल जाएगी, बल्कि शिक्षा के मंदिरों को बदनामी का अड्डा बना देगी। शासन को जल्द से जल्द निरीक्षण प्रणाली को सक्रिय करते हुए दोषियों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।