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सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की वैधता बरकरार

नई दिल्ली: भारत के सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की वैधता को 4:1 के बहुमत से बरकरार रखा है। यह धारा विशेष रूप से असम में प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने से संबंधित है। मुख्य न्यायाधीश DY चंद्रचूड़ की अगुवाई में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस मनोज मिश्रा ने इस निर्णय का समर्थन किया, जबकि जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने असहमति जताई।

इस फैसले का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि यह असम में वर्षों से चले आ रहे नागरिकता के मुद्दों को एक बार फिर से अदालत के समक्ष लाता है। 17 अक्टूबर को सुनाए गए इस फैसले में, CJI चंद्रचूड़ ने स्पष्ट किया कि धारा 6A उन लोगों को नागरिकता देती है जो संवैधानिक और ठोस प्रावधानों के दायरे में नहीं आते। उन्होंने इसे एक आवश्यक विधायी समाधान बताया, जो असम समझौते के तहत आया था।

धारा 6A का ऐतिहासिक संदर्भ

धारा 6A को 1985 में असम समझौते को आगे बढ़ाने के लिए जोड़ा गया था। यह धारा उन बांग्लादेशी प्रवासियों को नागरिकता देने का प्रावधान करती है, जो 1 जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 के बीच असम में आए थे। हालांकि, 25 मार्च 1971 के बाद असम में आने वाले प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं होगी। यह प्रावधान असम की स्थानीय संस्कृति और जनसांख्यिकी को संरक्षित करने के उद्देश्य से बनाया गया था।

याचिकाओं का विरोधाभास

इस मामले में 17 याचिकाएं दाखिल की गई थीं, जिनमें धारा 6A की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि 1966 के बाद से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से अवैध शरणार्थियों के आने से असम का जनसांख्यिकी संतुलन बिगड़ गया है, और इससे स्थानीय निवासियों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों का हनन हो रहा है। उन्होंने इस मुद्दे को एक गंभीर सामाजिक समस्या के रूप में प्रस्तुत किया, जो राज्य की सुरक्षा और सामाजिक समरसता के लिए खतरा बन सकती है।

केंद्र सरकार ने कोर्ट में दलील दी कि देश में अवैध प्रवासियों की संख्या का सही आंकलन करना संभव नहीं है। इससे पहले भी असम में इस मुद्दे पर कई बार विवाद उठ चुके हैं, और स्थानीय लोगों के बीच चिंता बढ़ी है कि प्रवासियों की बड़ी संख्या उनके राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों को प्रभावित कर रही है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह कहा कि असम समझौता अवैध प्रवास की समस्या का राजनीतिक समाधान था, जबकि धारा 6A इसका विधायी समाधान है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि असम में प्रवासियों के लिए 25 मार्च 1971 तक की समय सीमा सही है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “किसी राज्य में विभिन्न जातीय समूहों की उपस्थिति का अर्थ अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं है,” जो सांस्कृतिक और भाषाई अधिकारों की सुरक्षा से संबंधित है।

जस्टिस पारदीवाला की असहमति महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने यह कहा कि धारा 6A संभावित प्रभावों के कारण असंवैधानिक हो सकती है। उनका तर्क था कि यह धारा असम में नागरिकता के मुद्दे को और जटिल बना रही है और इससे स्थानीय निवासियों के अधिकारों को कमजोर किया जा सकता है।

आगे की राह

इस फैसले के बाद, असम में नागरिकता के मुद्दे पर बहस फिर से तेज होने की संभावना है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि यह निर्णय न केवल असम, बल्कि पूरे देश में प्रवासियों के मुद्दे पर नए सिरे से चर्चा को प्रेरित करेगा। इस फैसले का व्यापक राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव हो सकता है, और यह भारत की सामाजिक संरचना को फिर से परिभाषित कर सकता है।

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आने वाले समय में, यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि केंद्र और राज्य सरकारें इस फैसले के आलोक में क्या कदम उठाती हैं और कैसे वे असम के स्थानीय निवासियों के अधिकारों की रक्षा करती हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय नागरिकता कानून और सामाजिक समरसता के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हो सकता है।

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